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मुगलों के आतंक से भयभीत लोगों ने यहां ली थी शरण,चंद्रमा की रोशनी में अर्ध रात्रि में निकलता है यहां का डोला
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लोहाघाट(चंपावत)- काली कुमाऊं में क्षेत्रीय संस्कृति एवं मेलजोल बढ़ाने वाले इस प्रकार के भी मिले हैं जहां दलित की उपस्थिति के बगैर भगवान के रथ यात्रा शुरू ही नहीं होती है। यही नहीं पूजा अर्चना के नियम भी यहां काफी कठोर होते हैं तथा यहां के लोग कभी मांसाहार नहीं करते जिन्हें आज भी निर्मांसी कहा जाता है।
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बैकुंठ चतुर्दशी के दिन घने जंगलों के बीच बार किलोमीटर दूर ऊंची पहाड़ियों में होने वाला उत्तराखंड का यह पहला मेला है जिसकी अनूठी परंपराएं एवं मान्यताएं होने के साथ यहां रात के सन्नाटे के बीच देवी देवताओं का जयकारा करते हुए डोल यात्रा निकाली जाती है। जो सुबह भोर में ही मंदिर पहुंचती है। कहा जाता है कि 12वीं शताब्दी में मुगलों के आतंक से भयभीत वैध्यनाथ से भयभीत होकर आए लोगों ने यहां शरण ली थी। इस स्थान से कुछ दूरी पर इनके साथ आई महाशक्ति ने अपने को अवस्थित कर लिया। जब एक गाय रोज इस शक्ति स्थल पर स्वयं दुध का अभिषेक करने लगी तो लोगों को तब इसकी स्वप्न में भी जानकारी हुई। स्वप्न के आधार पर लोगों ने यहां। शिवालय की स्थापना की स्वप्न में उन्हें यहां बताया गया की निर्मांसी लोग ही पूजा अर्चना कर सकेंगे। बाद में इस स्थान पर आए चंद शासको को शिव शक्ति की महिमा का एहसास हुआ तथा उन्होंने यहां पर 10 किलोग्राम वजनी चांदी का छत्र चढ़ाया जो आज भी सुरक्षित है जो यहां के मंदिर में रखा जाता है।
शुरुआत में यहां खरही गांव के लोग पूजा किया करते थे उनके कुल में किसी व्यक्ति द्वारा मंशाहार करने से उन्हें शक्ति का कोपभाजन बनना पड़ा। बाद में वैजगांव, नाखोड़ा एवं ईजर गांव के लोगों को पुजारी नियुक्त किया गया। यहां के लोग शताब्दियों से पीढ़ी दर पीढ़ी मांसाहार नहीं करते हैं। बैकुंठ चतुर्दशी के दिन महाशक्ति का डोला उठता है जब तक दलित लाठियों से लैस होकर खड़े नहीं होते है, तब तक डोला नहीं उठता है। तल्ली मल्ली खरही के लोग उसके बाद डोला उठाते हैं इसके बाद यह डोला ढोल नगाड़ों के साथ यहां से 8 से 12 किलोमीटर जंगली रास्तों से होता हुआ लधोनधुरा की पहाड़ी में पहुंचता है जहां पहले से ही महिलाएं रात्रि जागरण कर मनौतिया मांगती हुई डोले का दर्शन करती है। यहां मां शिव शक्ति का डोला परिक्रमा के बाद विसर्जित कर दिया जाता है। यहां हल्दी के पत्तों में जौ, तिल एवं घी को सिरों में सात बार घुमाया जाता है। एसी मान्यता है कि बगैर खोच्चै को घुमाए कोई व्यक्ति जल ग्रहण नहीं करता है ऐसा न करने पर फोड़े फुंसी हो जाते हैं। इस वर्ष खरही के नाखोड़ा तोक से मल्ली खरही तक शोभायात्रा निकल जाएगी।पूजा अर्चना के बाद यहां शुक्रवार को रात्रि जागरण होगा इसके बाद रात ठीक 1:00 बजे चांदनी रात की रोशनी में यहां से घने जंगलों एवं खड़ी चढ़ाई को पार करता हुआ भगवान शिव की शोभायात्रा ऐसे समय अच्छी पहाड़ी में पहुंचती है जब सूर्य की पहली किरण भगवान शिव की शोभायात्रा का स्वागत करती है।ऐसी मान्यता है कि सूर्य भगवान भी भगवान शिव की उपासना करते थे।
लोहाघाट। लधोनधुरा का दो दिनी ऐतिहासिक मेला शुक्रवार से शुरू होगा। मेले में भाग लेने के लिए प्रतिवर्ष सैकड़ो की तादाद में प्रवासी लोग यहां घर अपने घरों में पहुंचते हैं। दिल्ली, पंजाब, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड के विभिन्न भागों में सेवारत क्षेत्री लोग मेले में सब परिवार भगवान शिव की पूजा अर्चना करते हैं। क्षेत्र के ग्राम प्रधान एवं मेला कमेटी की अध्यक्ष सुनीता बोरा द्वारा मेले का शुभारंभ किया जाएगा। मेले में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए जहां पुलिस बल का सहयोग करने के लिए ग्रामीण युवक मंगल दलों द्वारा भी अलग-अलग टोलिया बनाई गई है।
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