लोहाघाट(उत्तराखंड)- श्राद्ध पक्ष में हर किसी सनातनी को अपने पितरों का श्राद्ध करना आवश्यक होता है। श्रद्धा से अर्पित किया गया भोज,दान ही श्राद्ध होता है। श्राद्ध की कोई वस्तु बेकार नहीं जाती है। स्कंद पुराण के अनुसार पितरों व देवताओं की योनि ऐसी है जो दूर से कही गई बात भी सुन लेते हैं। दूर से श्रद्धा के साथ की गई पूजा तथा गन्ध को महसूस कर लेते हैं।
श्राद्ध पक्ष में वह अपने परिजनों के यहां ठीक वैसे ही आते हैं जैसे लाखों गायों के बीच, गाय अपने बछड़े को खोज लेती है। पितरों के आगमन पर उनका श्रद्धा के साथ श्राद्ध करने के बावजूद भी यदि कोई कमी भी रहती है तो उसके लिए उनसे क्षमा भी मांगनी चाहिए। जो लोग श्राद्ध न कर पितरों को बिना तृप्त किए लौटा देते हैं, ऐसे लोगों से भगवान भी प्रसन्न नहीं रहते हैं। ऐसे लोगों के बारे में कहा जाता है कि जो लोग अपने जन्म देने वाले माता-पिता को सम्मान नहीं देते हैं वह दूसरों को क्या देंगे ? कलयुग में श्राद्ध कर्म व पिंड दान तीन पिंडियों तक ही किया जाता है। यानी माता पिता, दादा दादी, पर दादा पर दादी का ही श्राद्ध होता है।
मनुष्य के अनंत ज्योति में विलीन होने के बाद उसे कीट पतंग, भूत प्रेत चाहे वह किसी भी योनि में अपने कर्म के कारण विचरण कर रहा है, श्राद्ध के द्वारा उसे उस योनि से मुक्त भी कराया जाता है। जो आत्मा स्वर्ग में होती है, उसके श्राद्ध का सुख स्वयं भगवान उस आत्मा तक पहुंचा देते हैं। इससे श्राद्ध करने वाले को तो पितरों का ही नहीं भगवान का भी आशीर्वाद मिलता है। श्राद्ध पक्ष में ऐसी तमाम अतृप्त आत्माएं भटकती हैं, यदि श्राद्ध करते समय ऐसे लोगों की आत्मा भी तृप्त कर उनका भी आशीर्वाद लिया जाता है।