लिखने का कौशल कैसे हासिल करें? विषय पर अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन उत्तराखंड द्वारा रुद्रप्रयाग जिले में किया बेवीनार का आयोजन

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रूद्रप्रयाग(उत्तराखण्ड)- एक शिक्षक के तौर पर अकादमिक लेखन के लिए लिखने के कौशल कैसे हासिल करें? विषय पर अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन उत्तराखंड द्वारा रुद्रप्रयाग जिले में बेविनार का आयोजन किया गया।जिसमें मुख्य वक्ता के रूप में डॉ० गुरबचन सिंह जो कि देश के प्रसिद्ध बालसाहित्यकार, संपादक,राज्य संसाधन केंद्र भोपाल के पूर्व निदेशक व ज्ञान विज्ञान समिति के पूर्व प्रादेशिक अध्यक्ष शामिल हुए।

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मुख्य वक्ता बेविनार डॉ गुरुवचन सिंह

गौरतलब है कि एक शिक्षक के तौर पर हम सब अक्सर कुछ न कुछ पढ़ते रहते हैं, चाहे वह अखबार हो, कोई पत्रिका हो, या फिर सो़शियल मीडिया के विभिन्न रूपों में आँखों के सामने से गुजरती सामग्री। इन बातों पर मौखिक रूप से हमारी अपने आसपास मौजूद लोगों से कभी कभी लम्बी बातें या यों कहें लम्बी लम्बी बहसें हो जाती हैं। विशेषकर किसी राजनीतिक विषय पर जब बहस की बात आती है तो हम बिना रूके बहुत देर तक बहस कर लेते हैं या अपने तर्क – वितर्क रख लेते हैं। लेकिन जब लिखने की बारी आती है तो उन्ही लोगों में से कोई एक आध ही लिखित रूप में अपने विचार रखने की हामी भरता है। इससे यह तो स्पष्ट है कि लिखना और बोलना दोनों बिल्कुल अलग-अलग कौशल हैं।

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लिखना लिखने से ही आता है,जबकि बोलने के अवसर हमें माँ की गोदी से ही मिलने लगते हैं।लिखने के लिए हमें विशेष अवसर चाहिए होते हैं या सरल शब्दों में कहें कि लिखने के लिए हमें कुछ उपकरणों के साथ, विशेष समय और विशेष अवस्था (यथा बैठना) की जरूरत होती है। स्पष्ट है कि लिखना, बोलने से अलग कौशल है, कोई जरूरी नहीं कि जो व्यक्ति बहुत अच्छा बोलना जानता हो वह बहुत अच्छा लिखना भी जानता हो, अलबत्ता कुछ हद तक यह दावा किया जा सकता है कि अनौपचारिक रूप से हर कोई व्यक्ति बोल तो सकता ही है।( यहां हम सामान्य बोलचाल की ही बात कर रहे हैं।)

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इसलिए लिखने के कौशल को लेकर रुद्रप्रयाग जिले में आयोजित बेविनार का संचालन करते हुए अजीम प्रेमजी जिला संस्थान टिहरी के प्रमोद पैन्यूली ने बेविनार के मुख्य वक्ता डॉ० गुरबचन सिंह का परिचय कराया।उन्होंने बताया कि डॉ० गुरबचन सिंह देश के प्रसिद्ध बालसाहित्यकार, संपादक,राज्य संसाधन केंद्र भोपाल के पूर्व निदेशक, भारत ज्ञान विज्ञान समिति के पूर्व प्रादेशिक अध्यक्ष रहे हैं। वर्तमान में वे अजीम प्रेमजी संस्थान से जुड़े हैं।

डॉ०गुरबचन सिंह ने अध्यापकों को संबोधित करते हुए कहा कि – लिखना कैसे प्रारंभ करें और एक शिक्षक के तौर पर अपने कक्षागत अनुभवों को कैसे अकादमिक लेख /लेखों का हिस्सा बनायें ? बच्चों के साथ काम करने के अपने अनुभवों के आधार पर गुरबचन जी ने बहुत सी महत्वपूर्ण बातें सामने रखी। अपनी बात की शुरूआत करते हुए डॉ०गुरूबचन ने कहा कि – जब हम लिखना शुरू करें तो स्वयं पर भरोसा रखें।जहाँ अकादमिक लेख के रूप में अपने कक्षा अनुभवों को अपना लेखन का विषय बनाया जा सकता है, तो वहीं दूसरे वर्ग के पाठकों के लिए (शिक्षकों से इतर), अपने दैनिक जीवन के विभिन्न अनुभव भी लेखन का हिस्सा हो सकता है।

लेखन में यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि, मैं किसके लिए लिख रहा/रही हूँ । अगर आप अपने लिए लिख रहे हैं तो वह लेखन नितांत एकाकी भाषा व शब्द लिये हुये होगा, जैसा कि याददास्त के लिए अपनी डायरी।
अगर मैं (लेखक) चाहता हूँ कि मुझे और लोग भी पढ़े, तो हमें फिर बहुत ही सजगता की आवश्यकता होती है। सबसे पहले हमें यह तय करने की आवश्यकता होती है कि, हम जो लिख रहे हैं, वो क्यों लिख रहे हैं? अगर हमारी यह समझ बन गई तो लेख के कई निहितार्थ खुल कर स्पष्ट हो जाते हैं।

लेखन के लिए यह आवश्यक है कि लेख से पहले लिखने की तैयारी के लिए अध्ययन की बहुत आवश्यकता होती है। सबसे पहले हमें लेख के लिए अपने आप के लिए एक ढांचे की आवश्यकता होती है, अगर हम स्वतन्त्र विचारों को लिखते हैं तो फिर वह लेख ढांचागत लेखन से अलग होगा। लेख के लिए शीर्षक सन्दर्भ, भूमिका, प्रमाण आदि के रूप में ताना-बाना लेकर बढ़ें। यह भी ध्यान रखें कि एक ही लेख में कई विषयों को लेकर न बढ़ा जाय, बल्कि यह ध्यान रखना चाहिए कि केन्द्रीय विषय के इर्द-गिर्द ही बने रहने की कोशिश हो।
सन्दर्भों का जुड़ाव आवश्यक होता है, जिससे कि लेख में तारतम्यता बनी रहे। इसके लिए यह आवश्यक है कि हम लेख से पहले लेख का रफ खाका बना लें।

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समाचार पत्रों के लेखन में पाठक के अनुकूल लेखन होता है, अतः हमारे लेख यदि शिक्षकों, शिक्षक प्रशिक्षकों के लिए हों तो फिर उसकी भाषा अलग ही होगी।
उन्होंने उदाहरण देकर समझाया कि बहुबार हम अपने अनुभवों को लिखते समय इस भाषा का उपयोग करते हैं कि इससे बच्चों को बहुत लाभ हुआ, लेकिन लेख में कहीं भी यह स्पष्ट नहीं होता कि क्या लाभ मिला। अत:यह ध्यान रखें कि हमारे लेख विवरणात्मक से हटकर विवेचनात्मक होने चाहिए, ऐसे लेख विचारशील लेख की श्रेणी में आते हैं।

आमतौर पर हमारे लेख खुशनुमा लेख होते हैं, यहाँ हमें विचार करने की आवश्यकता है कि शिक्षण इतना आसान काम नहीं, जितना हम लेख में बताते हैं, यह हमें यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि हमें लेख में बतौर लेखक अपनी असफलताओं , चुनौतियों, परेशानियों, मुश्किलों को भी स्थान देने की आवश्यकता है। कभी-कभी हम अपने लेखों में वैचारिक दोहराव भी बहुत करते हैं, यहाँ हमें यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि हमें बार- बार अपने सन्दर्भों को दोहराने से बचना भी सीखना होगा।
किसी विचार का सन्दर्भ देते हुए आप किसी बात या विचार को ज्यों का त्यों रख सकते हैं, और उसके आधार पर अपनी बात या निष्कर्ष को सामने रख सकते हैं। अपने लेख को बतौर फस्ट ड्राफ्ट अपने आस पास के सहयोगियों को बतौर समालोचना के लिए दिखाएं, उनसे फीडबैक लें कि क्या वे आपके लेख में रखी गई बात समझ सके हैं। लेखक समालोचना से न घबरायें, हर को़ई लेख कम से कम चार-पाँच बार फिल्टर होना चाहिए। अपने लेखों में बच्चों व लेखक के सन्दर्भ और पृष्ठभूमि को जरूर स्थान दें, इससे लेख में स्पष्टता आ जाती है।

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लेखन में परिमार्जन कैसे होता है? पर बोलते डॉ०गुरबचन जी ने कहा कि लेख लिखने के बाद स्वयं के लेख को बतौर पाठक पढ़कर उन प्रश्नों के जबाव लेख में देने की कोशिश करें जो बतौर पाठक आपके मन में उठे हों।श्रोताओं ने गुरबचन जी से बहुत सारे प्रश्न जैसे अनुभवों को लेख बनाते समय किस- किस चीज का ध्यान रखना चाहिए?

लेखन में बतौर भूमिका प्रारंभ कैसे प्रारंभ करें?
लिखते समय बहुत से विचार मन में आते जाते रहते हैं? इनमें से किन विचारों को लेख में शामिल करें?
ऐसे ही बहुत से प्रश्नों का सम्मिलित उत्तर देते हुए गुरबचन जी ने कहा कि – बच्चों के बीच किये जा रहे कार्यों को लेख बनाते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे अनुभव वही हों, जो हमारे साथ घटित हुये हों, हमारे शब्दों में जाति, धर्म, रंग, जैण्डर, आर्थिकी को चुभने वाले अर्थों में कदापि नहीं होना चाहिए, अपने कृत कार्य की प्रतिपुष्टी के लिए जो फोटोज हों, वे कार्य को प्रदर्शित करते हों ना कि कार्य करने वालों को। लेख में चलन में आ रहे शब्द हों, जटिल और कठिन शब्दावली प्रयोग नहीं की जानी चाहिए। अगर लेख अवधारणाओं पर हों तो यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि लेख समाधान की ओर ले जा रहा हो। वेबीनार संचालन अजीम प्रेमजी जिला संस्थान टिहरी के प्रमोद पैन्यूली द्वारा किया गया।

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