महिलाएं ही समाज में बदलाव की पूरक,ईक्कीसवी सदी की नारी हर मोर्चे पर कर रही खुद को साबित- दया भट्ट

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दया भट्ट, कवि व साहित्यकार

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खटीमा(उत्तराखंड) – 08 मार्च 1908 को 15.000 हजार महिलाओं ने जब ञूयार्क की सडको पर अपने अधिकारों को लेकर प्रदर्शन किया तो उस समय कम घन्टे, बेहतर वेतन और मतदान अधिकार उनकी पहली मांग थी.उसके बाद से ही
पहला अंतरराष्टीय महिला दिवस का कार्यक्रम 1911 में आयोजित किया गया.।और आज तक चला आ रहा है।

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किसी जमाने में अबला समझी जाने वाली नारी को मात्र भोग और संतान उत्पत्ति का जरिया समझा जाता था ,जिन औरतों को घरेलू कार्यो में समेट दिया गया था वह अपनी इस चारदीवारी को तोड़ कर बाहर निकली है और अपना दायित्व स्फ़ूर्ति से निभाते हुए सबको हैरान कर दिया है। ईक्कीसवी सदी नारी के जीवन में सुखद संभावनाये लेकर आई है नारी अपनी शक्ति को पहचानने लगी है, वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुई है लेकिन इस कटू सत्य को भी हम नकार नही सकते कि महिलाओं को आज पुरूषो की तुलना में कम मजदूरी मिलती है l

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महिला दिवस की सफ़लता की पहली शर्त जहाँ मूलतः महिलाओं के सर्वोतोमुखी विकास में नीहित है वही दूसरी शर्त बतौर पुरुष मानसिकता में आमूलचूक बदलाव आये वह वास्तविकता को जानें कि घर के कामकाज के साथ महिलाये अन्य महत्वपूर्ण और चुनौती भरे श्रेत्रो में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने का जज्बा रखती हैं lआज अगर महिलाओं की स्थिति की तुलना सैकड़ों साल पहले के हालात से की जाय तो यही दिखता है कि महिलायें पहले से ज्यादा तेज गति से अपने सपने पूरे कर रही हैं पर वास्तविक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो महिलाओं का विकास सभी दिशाओं में नही दिखाई देता है खास कर ग्रामीण श्रेत्र में।

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आत्म निर्भर होते हुए भी ग्रामीण श्रेत्र की महिलाओं को सामाजिक बेड़ियां के बंधन से पूरी तरह मुक्ति नही मिली। आज की महिलायें निर्भर नही हर मामले में आत्मनिर्भर व स्वतंत्र है।
हमें महिलाओं का सम्मान लिंग के आधार पर नही बल्कि स्वयं की पहचान के लिए करना होगा.।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि
घर और समाज की बेहतरी के लिए दोनों समान रूप से योगदान करते हैं यह जीवन को लाने वाली महिला है, हर महिला विशेष होती है चाहे वह घर पर हो या आफ़िस पर। वह अपने आस पास की दुनिया में बदलाव ला सकती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह बच्चों की परवरिश व घर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है l

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लेखिका तसलीमा नसरीन का यह कथन..
वास्तव में स्त्रियाँ जन्म से अबला नही होती उन्हें अबला बानाया जाता है जन्म के समय एक स्त्री शिशु की जीवनी शक्ति एक पुरुष शिशु की जीवन शक्ति की अपेक्षा अधिक प्रबल होती है लेकिन समाज अपनी परम्पराओं और रीति रिवाजो व जीवन मूल्यों के द्वारा
महिला को सबला से अबला बना देता है l
आज की अब आवश्यकता इस बात कि है कि महिलाओं का सशक्तिकरण करने के लिए उन्हें अहसास दिलाना होगा कि इसमें अपार शक्ति है उनको अपनी आंतरिक शक्ति को जगाना होगा जिस प्रकार एक पक्षी के लिए केवल एक पंख के सहारे उड़ना सम्भव नही है वैसे ही किसी राष्ट्र की प्रगति केवल पुरुषों के सहारे नहीं हो सकती है।

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